गुरुवार, 5 जुलाई 2012

किसी युगल ने कर दिया आदिम टोटका :)

लगता है किसी युगल ने कर दिया आदिम टोटका!
आज प्रात: से घन घमंड नभ गरजत घोरा... और बूँदों की झड़ी लगी है।
पंडीजी बहुत प्रसन्न हैं कि उनकी भविस्सबानी सच साबित हुई।
 तो लीजिये पुन: झेलिये कुछ पुरानी सी झड़ियाँ:
(1)  
रिसता आषाढ़ आतप स्वेद ग्रंथियों से, निहारता है अनिल ठिठक भीग चिपके वस्त्रों को। समय ठहरता है आँख सलवटें उभरती हैं, बादल उतरते हैं वदन पर बन आब बेचैन बारिशें हों कैसे जब धरा पर प्रेम विराम? 
किरकिरी कुनकुनी डाह बात, कान छूती दाह सात, बहुत हो चुका सिरफिरी टिटिहरी को कोसना कि लोट धूल धाल करें आदिम टोटके उपाय। समझो कि लिपटना स्वेद भीगी देह का निज देह के अंश से, लजवाता है बादल हवा युग्म को और ठिठकन टूटती है। बह चलता है आर्द्र अनिल क्षमा माँगते मरमर सहलाते धीर तरुओं को, उमस बढ़ती है उफ्फ! हवा चलती है?
लाज भरती है चिपके वस्त्रों में करना क्या दिखावा अंतरंग जो मिला ही हुआ है रीत से? लोग राहत कहते हैं, बिसूरते हैं कि होगा पुन: विलम्ब बादर की गह गह में, बूँदों की झड़ियों में? नहीं जानते कि एक ने तोड़ा है मौसम की पटरी से सुख निषेध का मिलीमीटर!
जो उठती हैं हजारो मील लम्बी चादरें पनीली ढकती पोतती गर्वीले नीले के मुँह कालिख बदरी। आँखें मूँद लेता है वह पलकों में दूरियाँ घटती हैं। निचुड़ जाती है पहली बूँद गिरती धूल धाल पर धप्प से बरसने लगते हैं बादल पसीने पसीने खोल देती है हवा सीना धरा समोने को सृष्टि बीज के कण तत्क्षण!
करो विश्वास कि हर वर्ष वर्षा आरम्भ होता है ऐसे ही, वर्षा आती रहेगी तब तक जब तक रहेंगे किसी एक को याद वही आदिम टोटके उपाय। नहीं आई अब तक तो समझो कि इतने बड़े परिवेश में किसी ने नहीं किया नैसर्गिक वही, उपाय तोड़ने का जुड़ने का, नहीं किया अब तक।
(2) 
घन आये इस रात सुहावन,
मन रे कोई गीत रचो
रीति नहीं अनीति सही,
सावन का संगीत रचो।

क्षिति जल पावक गगन सब रूठे
पवन झँकोरे गाछ गज ठूँठे
देह थकित दाह ज्वर छ्न छ्न,
धावन पग पथ साथ गहो
थोड़े थोड़े पास रहो।

सूखा पड़ा टिटिहरी दुखिया
कोस थकी बेमतलब दुनिया
बच्चे बढ़ते अंडज चिक चिक,
उड़ने को गम्भीर सुरों!
झंझ मृदंग उठान वरो।

करुणा उगलें तिमिर लहरियाँ
आतप तप कुम्हलाई बगियाँ
प्रार्थना के फूल लोप फिर,
अँसुअन सीझी दीठ बचो
सावन का संगीत रचो।

(3) 
गोमती किनारे 
बादर कारे कारे
बरस रहे भीग रहे 
तन और सड़क कन
घहर गगन घन 
धो रहे धूल धन
महक रही माटी.

बही चउआई
सहेज रही गोरी 
केश कारे बहक लहक कपड़े 
कजरारे नयन धुन
गुन चुन छुन छहर
फहर बिखर शहर सरर
चहक उठे पनाले.

बिजली हुई गुल 
पहुँची गगन बीच 
हँसती कड़क नीच
ऊँची उड़ान छूटी जुबान 
जवान जान खुद को 
नाच उठी 
भुनते अनाज सी.
....
....
सब कुछ हो गया
खतम हुआ
खोया रहा साँस रोके
सब कुछ सोच लिया
घर घुस्सी तू आलसी!


(4) 
यौवन
तन धन
सजे
सन सन।

शोर शोख 
बरजोर बार,
बार लेकिन 
कानों में कन कन 
तन धन
बजे घन घन।

आँख डोर 
बहकन
मन पतंग
तड़पन।
उठन शहर भर 
नीक लगत 
हवा पर
विचरण 
लहकन
तन धन 
बिखर छम थम।

लुनाई -
साँवरा बदन
कपोल लाल 
अधपके जामुन 
रस टपकन 
अधर मधुर 
मधु भर भर
कान लोर
लाल 
शरम रम रम 
तन धन
सिमट 
कहर बन शबनम।  

देह 
द्वै कुम्भ काम
दृग विचरें 
सप्तधाम 
कटि कुलीन 
नितम्ब पीन 
उतरे क्षीण
जैसे  
पश्चात मिलन 
पतली पीर 
सिमटन
तन धन 
... 
...
धत्त अकिंचन !

7 टिप्‍पणियां:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    शुभकामनायें ||

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  2. बस यूं ही, अगर सायस कुछ करेंगे तो....



    आपसे एक आग्रह किया है। उम्‍मीद है आप कान धरेंगे।

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  3. बादल घनन घनन बज बरसें,
    मोर नयन अलसायें हरषें..

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