रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 24

पिछले भाग से आगे...

गाँव में दसबजिया सनाटा पसरा है। पुजारी सूरज ने रोज की ही तरह हर पत्ते को चन्दन से टीक दिया है और पवन देव घर घर घूम जामा तलासी ले रहे हैं। दुआर पर एक अकेला पिल्ला गरदन जमीन से सटाये आँखें मूँद उकड़ू है। रात की कुकरौझ के लिये माफी माँग रहा है साइत! पड़ोस की खिरकी में लगी असुभ केरवानि की छाँव में निखहरे खटिया बैठा सोहित पत्ते हिलने डुलने से भउजी के मुखड़े पर होती घमछँइया निरख रहा है। भउजी ने आज केश धोये हैं।

पीठ की कोर्रा उज्जर साड़ी पर खुले केश फैले हैं। रमइनी काकी चुपके से झाँक गयी है – आजु नगिनिया पुरा खनदान बटोरले बा! ...

 

नये रोपे जोड़ा अँवरा की जमीन लीपने को जब भउजी ने धरती पर पहला हाथ लगाया तो सिहर उठी। दुबारा हाथ रखते जैसे किसी ने पूछा – सोहित के बतवलू कि नाहीं? भउजी ने सिर उठा निहारते देवर को देखा और पुन: झुक कर मन में ही उत्तर दिया – बूझ त गइले होंइहें, इशारा नाहीं बुझिहें देवर! ...नाहीं त बादि में जानि जइहें। पुन: आदेश जैसी पूछ हुई – बतावल जरूरी नइखे?

हाथ तेज चलने लगे। लीपना खत्म कर जब धोने के लिये लोटे की ओर हाथ बढ़ाई तो भउजी ने देखा बाईं ओर थाली में रखी रोरी में कुमकुम पर धूप रह रह चमक रही थी। अच्छत, दूब, हरदी को भी देखा और  भउजी ने रोरी में मटिहा दहिने हाथ की बिचली अंगुरी बोरा। माँग तक ले जाते भीतर हूक सी उठी – कत्थी खातिर रे! ... बबुना के पगलावे खातिर? हाथ रुक गये और हाँक सी पारी – हे आईँ बबुना!  

सामने आ बैठे सोहित के माथे माटी सनी रोली लगा भउजी ने अच्छत लगाया – खेत के अन्न बबुना! हाथ देईं। सोहित के हाथ दूब पड़ी – ज़मीन बबुना! और उस पर हल्दी गाँठ – सुभ बबुना! ... बइठल रहीं बबुना! ए खनदान के आँखुर हमरे कोखि में बा। संतान जनि के मेहरारू असल में सोहागिन होले। हम सोहागिन बबुना! हमके पक्का पियरी आनि देईं।

कोर्रा लुग्गा पहनने वाली भउजी जब तब हल्दी से रँग कर भी पहनती थी। बजार से पक्की पियरी ले आने की माँग से सोहित पहले हैरान हुआ और उसके बाद घाम जैसे और फरछीन हो गया। अब तक जिस सचाई को जानते हुये भी मन के भीतर दबे ढके था, उसका रूप बदल गया। कन्धे बोझिल से लगे और मन में बात धसती चली गई – आँखुर, अन्न, जमीन, सुभ। भउजी की माँग पूरी करनी ही होगी लेकिन कैसे?

सोहित अपने कर्मों से जवार में मसहूर, मुसमाति भउजी गाँव में नगिनिया नाम मसहूर। किस पटवा के यहाँ से लुग्गा बेसहि लाये सोहित? स्वयं के सरनाम चरित्र को जानने वाले पटवा की आँखों के व्यंग्य को सह पायेगा सोहित? और फिर बात में बात जोड़ कहीं बात खुल गई तो? कानों में साँप फुफकार उठा -  पार त हमहीं लगाइब ए भतीजा! केहू अउरी से जनि उघटि दीह! सम्मोहित सा चलता सोहित जाने कब जुग्गुल के आगे पहुँच गया।
जुग्गुल सरीखे धूर्तों में एक खासियत बहुत विलक्षण होती है – वे आदमी के रंग को समय से जोड़ कर पहचानते हैं।  सोहित को देखते ही घोड़वने के पास मदिया को हिदायत देता जुग्गुल अपनी लँगड़ी चाल से तीन पगों में ही उसके पास पहुँच गया और सीधे पूछ पड़ा – का हे? पलानी की ओर खिसकते हुये ही उसने सोहित की बात सुननी शुरू की और खत्म होते होते भीतर पहुँच गया। चुपचाप छोटकी सन्दूक से पियरी निकाला और सोहित को नरखा ऊपर करने का इशारा किया। कमर के कुछ नीचे से शुरू कर पेट से कुछ ऊपर तक बहुत सफाई से लुग्गा लपेट नरखा नीचे कर छिपा दिया – अब्बे नाहींs, साँझि के अपने भउजी के दे दीहs। अब जा!...

 

...समय बीत चला। खदेरन और मतवा के मनमेल बीच पड़ी किनकिनी सीपी बीच रेत सी हो गई – दोखी मोती। बेदमुनि का वात्सल्य ही उन्हें जोड़े हुये था, कभी कभी साथ हँसा भी देता था लेकिन अकेली मतवा स्वयं को आगम से सामना करने के लिये तैयार करती पत्थर होती गयी और खदेरन घिसते चन्दन - घिसें, लगें, बहें, निरर्थक, चुप कर्मकांडी।

भउजी की कांति बढ़ती गई और साथ ही देवर पर किये जाने वाले हास्य कटाक्ष भी मारक होते गये। ढेबरी की रोशनी में भउजी को देखता सोहित तो पुर्नवासी होती और दिन के उजाले में देखता तो गरहन। उस के ऊपर चिंता का भार बढ़ता गया। ऐसे में वह और जुग्गुल एक बन्धन बँधते गये – जाल में सोहित और कूट रस्सी जुग्गुल के हाथ। मन्नी बाबू घोड़े के साथ तरक्की करते गये।

सुनयना की किलकारियों पर रमइनी काकी की जब तब लग जाने वाली नजर गाँव भर में परसिद्ध हो चली। परसू पंडित की मलिकाइन सुनयना को हमेशा टीके रहतीं, कजरवटा से लगाये तीन निशान – एक माथे और दुन्नू गाल।

बाकी गाँव में वैसे ही अमन चैन। गोपन पाप, पवित्तर बैन।

 

...तिजहर को कोख में धीमी धीमी पीर शूरू हो गयी। नैसर्गिक समझ ने बता दिया कि वक्त हो गया है। भीतर की जुड़ान को हवा होते अनुभव करती भउजी सुख और दुख से परे हो कठिन उद्योग में लग गई।

 घर की मनही बाहर ले भागे वेदमुनि के पीछे दौड़ती मतवा की दीठ बहकी और पाँव जहाँ के तहाँ जम गये। सोहित की बैठकी की पलानी पर फैलाई गयी पियरी रह रह उड़ रही थी। खदेरन ने देखा जैसे मतवा के चेहरे से सारी ललाई निचुड़ गयी हो – पांडुरोगी सी! अकस्मात कुघटना समझ सँभालने को उन्हों ने हाथ बढ़ाया और मतवा की तर्जनी उठ गई – हम सँभारि लेब! रउरे चिंता जनि करीं। आवाज थी या सिर पर पत्थर! खदेरन उपेक्षा और अनादर की चोट से एक झटके में सब समझ गये।  

घड़ी भर बाद खेत से लौटते जुग्गुल ने पियरी को पहचाना और उसकी आँखें सिकुड़ती चली गईं – मन्नी बाबू, हमार एहसान बड़हन होखले पर बुझबs! (जारी)               

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