सोमवार, 11 जनवरी 2016

महापरिनिब्बानसुत्त: सुजाता की खीर और चुन्द का सूकरमद्दव

महापरिनिर्वाण सूत्र (महापरिनिब्बान सुत्त) में बुद्ध ने कहीं भी शूद्र शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अपनी भावी मृत देह के संस्कार के लिये वह खत्तियपंडित, ब्राह्मणपंडित और गहपतिपंडित पर विश्वास जताते हैं। 
बुद्ध ने अंतिम भोजन पावा के चुन्द कम्मारपुत्त के यहाँ किया। अनुवादकों ने कम्मारपुत्त का अनुवाद लोहार किया है। हमारी ओर एक हिन्दू जाति आज भी पायी जाती है - कमकर। समृद्ध चुन्द उसी गण से सम्बन्धित रहा होगा। चुन्द का अपना आम्रवन अर्थात बागीचा था जिसमें बुद्ध ठहरे थे। सम्पूर्ण सुत्त में भोजन के अनेक एक समान प्रकरण हैं जिसके लिये दो शब्द साथ साथ प्रयुक्त हैं - खादनीयम भोजनीयम। विद्वानों ने इनका अनुवाद क्रमश: कठोर और मृदु पदार्थों के रूप में किया है। चुन्द के यहाँ अलग बात मिलती है। इन दो शब्दों के साथ अलग से सूकरमद्दव का भी उल्लेख आता है - खादनीयम भोजनीयम पटियादापेत्वा पहूतञ्च सूकरमद्दवं। मामला और रोचक तब हो जाता है जब बुद्ध चुन्द से कहते हैं - "यं ते चुन्द सूकरमद्दवं पटियत्तं तेन मं परिविस। यं पनञ्ञं खादनीयम भोजनीयम पटियत्तं तेन भिक्खुसंघं परिविसा"ति अर्थात चुन्द! ये जो सूकरमद्दव है न वह तू मुझे परोस दे। जो अन्य मृदु और कठोर पदार्थ हैं उन्हें भिक्षुसंघ को परोस दे। भोजन सम्पन्न हुआ।
 बुद्ध पुन: चौंकाते हैं - चुन्द! यह जो बचा हुआ सूकरमद्दव है उसे तू गड्ढा खोद कर उसमें डाल कर दबा दे। इस भोजन को तथागत ही पचा सकते हैं, कोई ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, देव, मानव, तपी, पुजारी या मार(कामदेव) नहीं! ("नाहं तं चुन्द पस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणाब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय, यस्स तं परिभुत्तं सम्मा परिणामं गच्छेय्य अञ्ञात्र तथागतस्सा" ति।)
उसके पश्चात बुद्ध को प्रबल वेदना होने लगती है, रक्त अतिसार हो जाता है - लोहितपक्खन्दिका मारणंतिका। कहते हैं न मरणांतक वेदना! 
बुद्ध चुपचाप सहते हैं। 
अंतिम समय निकट है और बुद्ध को चुन्द की चिंता है - यह जानकर कि उसका भोजन पा कर तथागत मृत हुये, वह अपराधबोध से ग्रसित हो जायेगा, लोग भी उसे अच्छी दृष्टि नहीं देखेंगे, ताने मारेंगे। करुणा से भरे बुद्ध चुन्द के लिये सन्देश देते हैं - दो भोजनदान समान पुण्यदायी और गुणी हैं और अन्यों से बहुत ही ऊँची श्रेणी के भी हैं - एक जिसे पा कर तथागत संबोधि प्राप्त करते हैं और दूसरा जिसे पा कर महापरिनिर्वाण... 
इस प्रकार सुजाता की खीर से चुन्द के सूकरमद्दव को जोड़ बुद्ध उसे आयुष्य, वंश, सुख, यश, स्वर्ग और आधिपत्य इन विभूतियों से संपृक्त कर देते हैं। 
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मुझे लगता है कि सूकरमद्दव के साथ भी वैसा ही अनर्थ हुआ जैसा कतिपय वैदिक ऋचाओं के साथ। ब्राह्मण परम्परा की तरह ही श्रमण परम्परा में भी शाकाहार और मांसाहार को ले वितंडा है। उनकी एक शाखा के अनुसार सूकरमद्दव सूअर का मृदु मांस था। सबसे पुराने भाष्य में इसके तीन अर्थ बताये गये हैं: आयुर्वेदिक रसायन, पंचगव्य में बना भात और बाँस के नर्म कोपड़ से बना व्यंजन।  
 परवर्ती शोधकारों ने इसका अर्थ ऐसे फँफूद या कवक(मशरूम) से लगाया जो वनैले सूअर को पसन्द होता था। कवक खाने की मनाही भारत में बहुत पुरानी है। उस समय खाया जाता रहा हो, असम्भव है। 
दूसरों ने इसका अर्थ ऐसे 'विशेष व्यञ्जन' delicacy से लगाया जो वनैले सूअर को पसन्द किसी दुर्लभ कन्द या वनस्पति से बनता हो तो कुछ ने आयुर्वेद में सूकर संज्ञा से वर्णित अनेक वनस्पतियों में से किसी एक से। 
 सूकर+मद्दव का एक अर्थ यह भी होता है - जो सूअर को मृदु या प्रिय लगे। हमलोगों की ओर एक दुर्लभ कन्द की तरह की वनस्पति होती है जिसे भुँइफोरा कहते हैं। दुर्लभ है और किसी समय उसकी तरकारी बहुत विशिष्ट मानी जाती थी। दिवंगत नाना की मानूँ तो इसका एक प्रकार भूमि खोदने वाले बनैले सूअरों का प्रिय माना जाता था। यह तब की बात है जब ये सूअर उधर मिल जाते थे। 
इसे delicacy मानने को इस लिये भी मन कर रहा है कि पूरे सुत्त में अनेक भोज प्रकरण हैं और उनमें से किसी में भी भोजनीयम खादनीयम से इस तरह किसी दूसरे व्यंजन को अलग से नहीं बताया गया है। सूअर का मांस ऐसी दुर्लभ चीज नहीं जो अलग से बताई जाय और न ही ऐसी कि जिसे देवता या मनुष्य, दोनों के देव, सामान्य लोग, कामदेव, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण और प्रजा इनमें से कोई न पचा सके। भोजन के बासी होनेअरुवाने या बिगड़ जाने का यहाँ प्रश्न ही नहीं है क्यों कि बनाने और ग्रहण करने के बीच समयांतराल ऐसा था ही नहीं। 
 बुद्ध का उसका अपने लिये विशेष चयन भी इसके विशिष्ट पक्ष की ओर इंगित करता है। भुँइफोरे के कुछ प्रकार विषैले भी होते थे। बुद्ध खाने के पश्चात समझ गये होंगे इसलिये बचे खुचे को भूमि में गड़वा दिये और यह भी कहे कि उसे पचाना उनके अतिरिक्त किसी के लिये सम्भव नहीं! 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १२०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
    ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "तुम्हारे हवाले वतन - हज़ार दो सौवीं ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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