रविवार, 10 अप्रैल 2016

वाल्मीकीय रामायण के नक्षत्र प्रसंग - 1

'श्रीमान पुण्यमय चैत्र' माह में जब कि वनप्रांतर फूलों से लदे होते हैं, राजा दशरथ ने श्रीराम के राज्याभिषेक का निश्चय किया। 
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः। 
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम्॥ २-३-४

दशरथ ने कहा,” मेरे जन्म नक्षत्र पर सूर्य, मंगल और राहु का संक्रमण है पुत्र जो मृत्यु या घोर आपदा के संकेतक हैं। तुम्हारा अभिषेक शीघ्र होना चाहिये। जब चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में होंगे तब तुम्हारा राज्याभिषेक होगा श्रीराम!”  
चैत्र पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर होते हैं तो चैत्र माह की वह कौन सी तिथि होगी जब चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर रहे होंगे

शुक्लपक्ष अष्टमी/नवमी की सम्भावना बनती है कि नहीं? अर्थात जन्मदिन के दिन श्रीराम का राज्याभिषेक संकल्पित था। 
 
श्व एव पुष्यो भविता श्वोऽभिषेच्यस्तु मे सुतः ।
रामो राजीवताम्राक्षो यौवराज्य इति प्रभुः ।। २-४-२
अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणैर्ग्रहैः ।
आवेदयन्ति दैवज्ञावः सूर्याङ्गारकराहुभिः ।। २-४-१८
प्रायेण हि निमित्तानामीदृशानां समुद्भवे ।
राजा हि मृत्युमाप्नोति घोरं वापदमृच्छति ।। २-४-१९
अद्य चन्द्रोभ्युपगतः पुष्यात्पूर्वं पुनर्वसू ।
श्वः पुष्ययोगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः ।। २-४-२१
ततः पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम् ।
श्वस्त्वाहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परंतप ।। २-४-२२
राम के वनगमन समाचार पर कौशल्या का शोक प्रसंग मार्मिक है। इसी प्रकरण से पता चलता है कि वनगमन के समय राम के उपनयन संस्कार से सत्रह वर्ष बीत चुके थे।
दश सप्त च वर्षाणि तव जातस्य राघव। 
असितानि प्रकान्क्षन्त्या मया दु्:ख परिक्षयम्॥ २-२०-४५

राम वनगमन के समय क्या होता है? त्रिशंकु, मंगल, बुध और वृहस्पति दारुण हो कर चन्द्रमा को आक्रांत किये हुये हैं। नक्षत्र और अन्य ग्रह तेजहत लगते हैं। विशाखा ऐसे लगती है जैसे धुँये में लिपटी हो। वाल्मीकि चतुर शब्द प्रयोग करते हैं - नभसि प्रचकाशिरे।  विशाखा को इक्ष्वाकुदेशनक्षत्र कहा जाता है। श्रीराम का वंश इक्ष्वाकुवंश है जो कुअवसर के धुँये से ग्रस्त है।
त्रिशंकुर्लोहिताङ्ग: च बृहस्पति बुधावपि ।
दारुणाः सोमम् अभ्येत्य ग्रहाः सर्वे व्यवस्थिताः ।। २-४१-११
नक्षत्राणि गत अर्चीम्षि ग्रहाः च गत तेजसः ।
विशाखाः च सधूमाः च नभसि प्रचकाशिरे ।। २-४१-१२
... सीताजी से मिलने के पश्चात उष:काल में हनुमानजी जब लंका से प्रस्थान करते हैं तो महर्षि वाल्मीकि अद्भुत उपमायें गढ़ते हैं। इस प्रसंग से सागर और आकाश की साम्यता का पता तो चलता ही है, नाक्षत्रिक संकेत भी अद्भुत हैं। बहुत दिनों से वृत्र और इन्द्र की आकाशीय पहचान को ले ढूँढ़ रहा था। आज संकेत मिला कि हो न हो वृश्चिक राशि ही ऐरावत है। उसके आकार में सूँड़ और सिर तो देखे ही जा सकते हैं।
हनुमान सागर को एक विशाल जलपोत की तरह पार कर रहे हैं। आकाश, क्षितिज और सागर मिल कर कैसा दृश्य उपस्थित कर रहे हैं! 
सूर्य और चन्द्र साथ हैं अर्थात पूर्णिमा के आसपास का समय है। चन्द्रमा खिला कुमुद है। सूर्य कारंडव नामक जलपक्षी है। पुष्य और श्रवण नक्षत्र हंस हैं तो बादल शैवाल। पुनर्वसु महामीन है। लोहितांग मंगल महामगर है। ऐरावत रूपी वृश्चिक महाद्वीप की तरह लगता है तो स्वाति नक्षत्र तैरता हंस।
संघात से उपजी वायु ही सागर लहरे हैं। चन्द्रमा की किरणें ही शीतल जल हैं (शिशिर?) और भुजंग, यक्ष, गन्धर्व मानो खिले हुये कमल के फूल हैं।
सचन्द्र कुमुदम् रम्यम् सार्क कारण्डवम् शुभम् ।
तिष्य श्रवण कदम्बम् अभ्र शैवल शाद्वलम् ।। ५-५७-१
पुनर्वसु महामीनम् लोहितांग महाग्रहम् ।
ऐरावत महाद्वीपम् स्वाती हंस विलोडितम् ।। ५-५७-२
वात सम्घात जात ऊर्मिम् चन्द्र अंशु शिशिर अम्बुमत् ।
भुजंग यक्ष गन्धर्व प्रबुद्ध कमल उत्पलम् ।। ५-५७-३
__________________________
हनुमान जी 'पूस की रात' में लौटे?


2 टिप्‍पणियां:

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।