बुधवार, 2 नवंबर 2016

चार गुण – धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं [सुन्दरकाण्ड-5]


मनुष्य प्रज्ञा प्रेरित सम सम्यक संतुलन के कारण मनुष्य होता है। ऊर्ध्वरेता प्रज्ञा के कारण मूल प्रवृत्तियों का संतुलन सत की पहचान है। सत का सजग चयन वरेण्य है। वह प्रकाशमय सविता है जिसकी प्रेरणा निरंतर ऊँचाइयों की ओर ले जाती है।   
क्षुधा, निद्रा, भय और मैथुन - ये चार प्राकृत हैं, पाशव हैं, मूल प्रवृत्तियाँ हैं, समस्त जंतुओं में होती हैं। इनके एकल या बहुल समुच्चय ही बस हों तो तमस की स्थिति है। इस स्थिति में पाशव वृत्ति ही काम करती है, सम् वाद अर्थात संवाद नहीं। किसी भी अभियान में यदि ऐसी बाधा आये तो बेझिझक कठोरता पूर्वक उसका संहार शमन ही मार्ग है। तमस से उलझना उसे बढ़ाना और बली बनाना होता है।
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पहली दो विघ्न बाधाओं में सजग देव तत्त्व की प्रेरणा और हस्तक्षेप थे लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं था। हनुमान जी की गति को मूल प्रवृत्ति ‘क्षुधा’ से प्रेरित राक्षसी सिंहिका ने रोक लिया – बहुत दिनों पश्चात मोटा आहार मिला है, इसे खा लूँ तो आज पेट भर जायेगा अद्य दीर्घ कालस्य भविष्याम्यहमाशिता
उसके द्वारा पकड़े जाने के कारण हनुमान जी का पराक्रम पङ्गु हो गया जैसे सागर में प्रतिलोम वायु के कारण विशाल जलयान की गति अवरुद्ध हो जाती है – सहसा पङ्गुकृतपराक्रम:, प्रतिलोमेन वातेन महानौरिवे सागरे!
सब ओर देखने पर समुद्र के जल के ऊपर उठा विशालकाय प्राणी दिखा और उन्हें स्मृति हो आयी कि सुग्रीव ने इसी महापराक्रमी छायाग्राही जीव के बारे में चेताया था, इसमें संशय नहीं कि वही है – छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशय:। पानी में थोड़े गहरे रहने वाले कुछ हिंसक जीव तैरते जीवों की छाया से ही आहार की उपस्थिति का अनुमान कर आक्रमण करते हैं, छायाग्राही से उसी ओर संकेत है।
उनकी गति अवरुद्ध कर सिंहिका मेघ घटा के समान गर्जना करती हुई ‘दौड़ी’ – घनराजीव गर्जन्ती वानरं समभिद्रवत्।
तमस विघ्न आक्रमण पर था। हनुमान जी पहचान चुके थे, कोई दुविधा नहीं, कोई झिझक नहीं और न पहले की तरह संवाद करने की आवश्यकता भी थी, कोई लाभ नहीं होता। कपि ने उसके मर्मस्थलों को चिह्नित किया कि इन पर वार करने से इसका नाश हो जायेगा, कायमात्रं च मेधावी मर्माणि च महाकपि - नीति चयनित आक्रमण।  
वे उसके मुँह में समा गये जैसे कि पूर्णिमा का चन्द्र राहु का ग्रास बन गया हो – ग्रस्यमानं यथा चन्द्रं पूर्णं पर्वणि राहुणा!
भीतर उसके मर्मस्थलों को अपने तीखे नखों से विदीर्ण कर दिया, राक्षसी मृत हो गिर पड़ी – पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम्
आकाशचारी प्राणियों ने कपि की सराहना की (न देवता, न विद्याधर, न गन्धर्व, केवल प्राणी)। इस विजय पर उन प्राणियों ने हनुमान जी से यह सूत्र कहा:
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति
हे वानरेन्द्र! जिसमें तुम्हारे समान धैर्य, सूझ बूझ वाली सूक्ष्म दृष्टि, बुद्धि और दक्षता - ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।
(सुकवि मर्मस्थलों को पहचानता और उदात्त मानवीयता की प्रतिष्ठा करता चलता है, यहाँ वही किया गया है)।

हनुमान जी को आगे विविध वृक्षों से विभूषित द्वीप दिखा, मलय पर्वत दिखा और उसके उपवन भी – विविधद्रुमविभूषितम्, द्वीपं ..मलयोपवनानि च
सागर, उसके तटीय जलप्राय क्षेत्र, तटीय वृक्ष और सागरपत्नी समान सरिताओं के मुहाने भी दिखे:
सागरं सागरानूपान्सागरानूपजान्द्रुमान्
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयन्
लङ्का निकट आ गयी, कहीं मेरी इस गति को देख राक्षसों के मन में कौतुहल न उत्पन्न हो जाय, ऐसा विचार कर महाकपि देह को ढील दे पुन: वैसे ही प्रकृतिस्थ हो गये जैसे मोहरहित हुआ व्यक्ति अपने मूल स्वभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो – वीतमोह इवात्मवान्, जैसे तीन पग में समूचे लोकों को नापने के पश्चात बलि की वीरता का हरण करने वाले हरि ने स्वयं को समेट लिया था – त्रीन् क्रमानिव विक्रम्य बलिवीर्यहरो हरि:। हरि का अर्थ वानर भी होता है और विष्णु भी। कपि ने सागर पार कर लिया था। 

...अंतिम तमस परीक्षा के साथ ही त्रिगुण परीक्षा को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर महाबली हनुमान जी ने त्रिकूट पर्वत के शिखर पर स्थित लङ्का को सावधान हो देखा - त्रिकूटशिखरे लङ्कां स्थितां स्वस्थो ददर्श ह

अब तक तो केवल परीक्षायें थीं, वास्तविक चुनौतियाँ तो अब आनी थीं। उनका आत्मविश्वास हिलोरें ले रहा था:
शतान्यहं योजनानां क्रमेयं सुबहून्यपि
किं पुनः सागरस्यान्तं संख्यातं शतयोजनम्

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