रविवार, 9 मई 2010

...रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा




पुनर्प्रस्तुति 
वाराणसी। अर्धरात्रि। छ: साल पहले की बात। सम्भवत: दिल्ली से वापस होते रेलवे स्टेशन पर उतर कर बाहर निकला ही था कि कानों में कीर्तन भजन गान के स्वर से पड़े:
“....रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा
इतनी करुणा और इतना उल्लास एक साथ। कदम ठिठक गए। गर्मी की उस रात मय ढोलक झाल बाकायदे बैठ कर श्रोताओं के बीच मंडली गा रही थी। पता चला कि शौकिया गायन है, रोज होता है। धन्य बाबा विश्वनाथ की नगरी ! रुक गया - सुनने को।
भादो के अन्हरिया
दुखिया एक बहुरिया
डरपत चमके चम चम बिजुरिया
केहू नाहिं आगे पीछे हो हो ऽऽऽ
गोदि के ललनवा लें ले ईं ना
रोवे देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽ
जेलखाने में दुखिया माँ रो रही है। प्रकृति का उत्पात। कोई आगे पीछे नहीं सिवाय पति के। उसी से अनुरोध बच्चे को ले लें, मेरी स्थिति ठीक नहीं है। मन भीग गया। लेकिन गायक के स्वर में वह उल्लास। करुणा पीछे है, उसे पता है कि जग के तारनहार का जन्म हो चुका है। तारन हार जिसके जन्म पर सोहर गाने वाली एक नारी तक नहीं ! क्या गोपन रहा होगा जो बच्चे के जन्म के समय हर नारी का नैसर्गिक अधिकार होता है। कोई धाय रही होगी? वैद्य?
देवकी रो रही है। क्यों? शरीर में पीड़ा है? आक्रोश है अपनी स्थिति पर ? वर्षों से जेल में बन्द नारी। केवल बच्चों को जन्म दे उन्हें आँखों के सामने मरता देखने के लिए। तारनहार को जो लाना था। चुपचाप हर संतान को आतताई के हाथों सौंपते पति की विवशता ! पौरुष की व्यर्थता पर अपने आप को कोसते पति की विवशता !! देवकी तो अपनी पीड़ा अनुभव भी नहीं कर पाई होगी। कैसा दु:संयोग कि एक मनुष्य विपत्ति में है लेकिन पूरा ज्ञान होते हुए भी अपने सामने किसी अपने को तिल तिल घुलते देखता है - रोज और कौन सी विपत्ति पर रोये, यह बोध ही नहीं। मन जैसे पत्थर काठ हो गया हो। देवकी क्या तुम पहले बच्चों के समय भी इतना ही रोई थी ? क्यों रो रही हो? इस बच्चे के साथ वैसा कुछ नहीं होगा
ले के ललनवा
छोड़बे भवनवा कि जमुना जी ना
कइसे जइबे अँगनवा नन्द के हो ना
इस भवन को छोड़ कर नन्द के यहाँ जाऊँ कैसे? बीच में तो यमुना है।
रोए देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽऽ
माँ समाधान देती है।
डलिया में सुताय देईं
अँचरा ओढ़ाइ देईं
मइया हई ना
रसता बताय दीहें रऊरा के ना,
जनि मानिं असमान के बचनवा ना
रोएँ देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽ
जेल मे रहते रहते देवकी रानी केवल माँ रह गई है। समाधान कितना भोला है ! कितना भरोसा । बच्चे को मेरा आँचल ओढ़ा दो ! यमुना तो माँ है आप को रास्ता बता देंगी। लेकिन यहाँ से इसे ले जाओ नहीं तो कुछ हो जाएगा।
तारनहार होगा कृष्ण जग का, माँ के लिए तो बस एक बच्चा है।
आकाशवाणी तो भ्रम थी नाथ ! ले जाओ इस बच्चे को ।. . . मैं रो पड़ा था।
..उठा तो गाँव के कीर्तन की जन्माष्टमी की रात बारह बजे के बाद की समाप्ति याद आ गई। षोडस मंत्र 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।' अर्धरात्रि तक गाने के बाद कान्हा के जन्म का उत्सव। अचानक गम्भीरता समाप्त हो जाती थी। सभी सोहर की धुन पर नाच उठते थे। उस समय नहीं हुआ तो क्या? हजारों साल से हम गा गा कर क्षतिपूर्ति कर रहे हैं।
कहँवा से आवेला पियरिया
ललना पियरी पियरिया
लागा झालर हो
ललना . . .
उल्लास में गवैया उत्सव के वस्त्रों से शुरू करता है।
"बच्चे की माँ को पहनने को झालर लगा पीला वस्त्र कहाँ से आया है?"
मुझे याद है बाल सुलभ उत्सुकता से कभी पिताजी से पूछा था कि जेल में यह सब? उन्हों ने बताया,
"बेटा यह सोहर राम जन्म का है।"
"फिर आज क्यों गा रहे हैं?"
"दोनों में कोई अंतर नहीं बेटा"
आज सोचता हूँ कि उनसे लड़ लूँ। कहाँ दिन का उजाला, कौशल्या का राजभवन, दास दासियों, अनुचरों और वैद्यों की भींड़ और कहाँ भादो के कृष्ण पक्ष के अन्धकार में जेल में बन्द माँ, कोई अनुचर आगे पीछे नहीं ! अंतर क्यों नहीं? होंगे राम कृष्ण एक लेकिन माताएँ? पिताजी उनमें कोई समानता नहीं !
 हमारी सारी सम्वेदना पुरुष केन्द्रित क्यों है? राम कृष्ण एक हैं तो किसी का सोहर कहीं भी गा दोगे ? माँ के दु:ख का तुम्हारे लिए कोई महत्त्व नहीं !
 वह बनारसी तुमसे अच्छा है। नया जोड़ा हुआ गाता है लेकिन नारी के प्रति सम्वेदना तो है। कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?

26 टिप्‍पणियां:

  1. राम और कृष्ण भी अगर एक होते तो दोनों की पूजा हो रही होती। आपने देखा होगा,कृष्ण केवल बाल रूप में ही पूजे जाते हैं क्योंकि बड़े होने पर.....तिकड़म,मार-काट...महाभारत!

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  2. सोहर गाते-गाते आपने चिकोटी काट ली...!

    ..कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?
    शायद आप नारी के क्यों नहीं हुए कहना चाहते है..के छूट गया है.
    ..भजन मंडलियों द्वारा गाए जाने वाले इन सोहरों में जो जितना डूबता है उतना पाता है. अपने भाव को सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है आपने.

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  4. 'बेचैन आत्मा' जी के निर्देश पर ध्यान देवें , देव !
    जन्म और कष्ट ; दोनों के बीच सोहर का उत्साह पिरोया जाता है !
    कृष्ण के आस-पास जन्म के समय का कष्ट है , आरंभिक कष्ट है !
    राम के यहाँ जन्मोत्तर वनवास है , उत्तर-कष्ट है !
    एक गुप्तार-घात में जाता है और दूसरा बहेलिये के विशिख से मरता है !
    कष्ट की डगर के कारण ही दोनों एक दीखते होंगे आपके बाबू जी को !
    और ब्लॉग के नारीवाद से आप ज्यादा संवेदित है न - :)
    ..........
    बड़ी चित्ताकर्षक प्रस्तुति की है आपने ! ठहराव के साथ पढ़ा ! सुन्दर लगा ! आभार !

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  5. आंसुओं से नैन भरे ..मन गदगद हुआ ...सुबह कंस के गुणगान से दुखी मन कुछ शांत हुआ ...
    कौन कहता है सारी संवेदना पुरुष पर ही केन्द्रित है ....इसे पढने के बाद भी ...??

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  6. रोए देवकी रनिया जेहल खनवा SSS
    सांस्कृतिक परिवेश को सहकर्मी बनाते हुए आपके द्वारा अपनी बात कहने का यह अन्दाज --- बहुत सुन्दर

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  7. गिरिजेश सर, आज सुबह सुबह अदा जी के ब्लॉग पर कंस का जिक्र और आपकी पोस्ट भी उन्हीं पौराणिक पात्रों पर देखकर लग रहा है कि आज कुछ खास ही दिन हैं। हम दोनों से सहमत हैं।
    वैसे हमें अपने तर्क या विचार नहीं रखने चाहिये क्या? आंख मूंदकर जो और जैसा बताया गया है, मान लेना चाहिये क्या? फ़िर तो दुनिया में समस्यायें शायद खत्म हो जायेंगी। पर क्या करें अपने दिमाग का, सवाल बढ़ते ही जा रहे हैं।
    पोस्ट दिल को छू गई है।
    आभार स्वीकार करें।

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  8. @ आज कुछ खास ही दिन - मातृ दिवस की बेला है।
    @ वैसे हमें अपने तर्क या विचार नहीं रखने चाहिये क्या? आंख मूंदकर जो और जैसा बताया गया है, मान लेना चाहिये क्या? - अवश्य रखने चाहिए। आँख मूँद कर क्यों मानना? प्रश्न तो होते रहने चाहिए।

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  9. बनारस स्टेशन के पूर्व में स्थित इस छोटे से मंदिर से मेरा पुराना हल्का फुल्का याराना रहा है....महानगरी सुबह चार बजे पहुंचती थी और मैं रोडवेज पकडने तक मां पिताजी से अलग हट यहां मंजीरेदास को सुनता था....

    अब यह मंदिर वहां नहीं है...अब वहां दो एटीम लग गये हैं....मेरी ही कंपनी के ....यानि याराना अब भी बना हुआ है...अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही :)

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  10. गिरजेश भाई
    लगा कि आपके साथ हम भी बनारस की किसी गली में घूम रहे हैं और गवैयों की टोली के साथ आनंद उठा रहे हैं ......! लोक गीतों में जो अपनापन है वो और कहाँ.....पुराणी सांस्कृतिक विरासत से परिचय करने का हार्दिक धन्यवाद !

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  11. संवेदना का यह पाठ माँ ही पढ़ाती है और बड़ा होकर वह यह भूल जाता है यह विडम्बना नहीं तो और क्या है ?

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  12. अभी तक यहाँ नहीं हुआ है
    हैप्पी मदर्स डे...
    लेकिन भारत में हो गया है...
    शुभकामना...

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  13. @ सवाल रखने और बहन को जान से मारने का उपक्रम करने और उसकी गोद उजाड़ने वाले नृशंस हत्यारे को अच्छा भाई समझने और उसका समर्थन करने में बहुत फर्क है ....और आँख मूँद कर किसी अपने की गलत प्रतिक्रिया पर हाँ में हाँ मिलाकर उसे भ्रम में रखना और भी गलत है ...

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  14. @ फ़र्क और गलत:- हम क्यों दूसरों को बने बनाये फ़्रेम में ही फ़िट देखना चाहते हैं? अगर सब को बनी बनाई मान्यताओं पर ही चलना है तो हमें या आपको भी कुछ नया लिखने की कोई जरूरत ही नहीं है। हमसे पहले के लोग बहुत कुछ और बहुत अच्छा लिख गये हैं हमारे मुकाबले। कोरी कट पेस्ट करने से ही काम चल जाता, और लॉबी की तरह।
    आंख मूंदकर किसी ऐसी बात को मानना जो हमें पूरी तरह अपील नहीं करती, उससे ज्यादा बेहतर है इस पर सवाल उठाने का आंख मूंदकर समर्थन करना। चाहे प्रश्नकर्ता अपना हो या पराया।
    वैसे हमें तो सभी अपने ही लगते रहे हैं अभी तक, हो सकता है गलती लगी हो।
    अपनी अपनी राय रखने के लिये शायद सब स्वतंत्र हैं।

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  15. बढ़िया प्रस्तुति :)

    हार्दिक बधाई :)

    ढेर सारी शुभकामनायें :)

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  16. भारत की परम्परा प्रश्न परम्परा है। वेदों में वृहस्पति ऋषि की नास्तिकता की ओर झुकी ऋचाओं को भी स्थान दिया गया। उपनिषद आरण्यक इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। बुद्ध अपने शिष्यों को स्वयं पर प्रश्न उठाने के लिए उकसाते हैं तो कृष्ण भारत युद्ध के मैदान में भी अर्जुन के साथ प्रश्नोत्तर करते हैं। शायद हमारी सहिष्णुता का मूल यही है। ..
    समस्या तब आती है जब प्रश्न के साथ उसी रौ में स्थापनाएँ भी की जाती हैं। कंस प्रकरण में मेरी वाणी जी के साथ सहमति है। मुखर नहीं हुआ, एक दूसरी पंक्ति खींच दी - याद दिलाने के लिए। अमरेन्द्र जी ने भी वह बात याद दिलाई जो लोग भूले रहते हैं। देवकी का दु:ख सोचता हूँ तो भीतर तक आर्द्र हो जाता हूँ। देवकी प्रतिनिधि है - सदियों तक सताई हुई गर्भिणियों की - कोई वैद्य नहीं बस अन्धविश्वासी टोटके। ..संतोष होता है कि आज स्थिति बहुत सुधर चुकी है।
    @ 'किसी अपने की' और 'सभी अपने' - यह 'अपनापन' बड़ा डेंजरस होता है बीड़ू! :) इसी सन्दर्भ में तो मैंने वह पोस्ट लिखी थी - http://girijeshrao.blogspot.com/2010/04/blog-post_10.html
    @ नया लिखने की जरूरत - हमेशा थी, है और रहेगी। एक यात्रा है स्वयं की और परिवेश की पहचान की - चलती रहनी चाहिए, चरैवेति चरैवेति।

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  17. सहिष्णुता में विश्वास होने के कारण ही प्रश्न और प्रतिप्रश्न कर पाता हूं। असहमति में मुझे कोई बुराई नहीं दिखती। जरूरी नहीं है कि हर चीज को हम सब एक ही नजरिये से देखें।
    परपीड़ा के प्रति आपकी आद्रता से वाकिफ़ भी हूं, और शायद इसीलिये आपसे संपर्क होने पर(एकतरफ़ा ही सही) अभिभूत भी रहता हूं। अपनेपन वाली आपकी पोस्ट पर बीड़ू की टिप्पणी भी है और यकीन मानिये सिर्फ़ विरोध करने के लिये या समर्थन करने के लिये मैं कभी टिप्पणी नहीं करता हूं। जैसा मुझे लगता है, वही टीपता हूं। और जिंदगी से ज्यादा डेंजरस कुछ भी नहीं है, अपनापन भी नहीं।
    ऐसी एक टिप्पणी में जितना समय और श्रम लगता है उतनी देर में दस बीस रैंडम पोस्ट्स पर ठप्पा लगाया जा सकता है और ज्यादा मशहूर हुआ जा सकता है।
    सवाल उठाने का सिर्फ़ यही उद्देश्य है कि मंथन से कुछ ऐसा हासिल हो सके कि कुछ तो अनुत्तरित प्रश्न शांत हों।
    फ़िर भी कभी कुछ नागवार गुजरे तो एक बार सरल भाषा में कहकर देखियेगा चाहे अपने ब्लॉग पर या मेरे ब्लॉग पर, आपको पुन: परेशान नहीं होना पड़ेगा। आखिर फ़त्तू इतनी दुनियादारी तो समझ ही गया है कि इजाजत मांगने से इजाजत नहीं मिलती है, सीधे से पांच रुपल्ली मांग लो तो इजाजत साथ में फ़्री मिल जायेगी ::))

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  18. य़दि उत्तर चाहिये तो प्रश्न करने ही होते हैं. मातृ दिवस मात्र दिवस न रहे यही कामना है.

    अरे भाई, कृष्ण को स्त्री क्यों देखना चाहते हैं आप. दुर्गा हैं ना. जो जैसा है वैसा रहने दें. वैसे परंपरा की बात तो ये है कि चाहे कृष्ण हों या राम या विष्णु या शिव, अपनी समर्थ अर्धांगनियों के बिना श्री हीन माने जाते हैं.

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  19. @ संजय जी,
    @ आपसे संपर्क होने पर(एकतरफ़ा ही सही) - एकतरफा नहीं बन्धु! टेलीपैथी के बारे में सुना ही होगा। इस समय आप को उत्तर दे रहा हूँ जब कि सामान्यत: इस समय नेट जोड़ता ही नहीं।
    @ जिंदगी से ज्यादा डेंजरस कुछ भी नहीं है, अपनापन भी नहीं।
    सही कहा। ज़िन्दगी डेंजरस है। अपनापन और विलगाव तो बायप्रोडक्ट हैं ज़िन्दगी के। मुर्दे या पत्थर क्या खाक मुहब्बत/अदावत करेंगे:)
    @
    कभी कुछ नागवार गुजरे तो एक बार सरल भाषा में कहकर देखियेगा चाहे अपने ब्लॉग पर या मेरे ब्लॉग पर, आपको पुन: परेशान नहीं होना पड़ेगा। आखिर फ़त्तू इतनी दुनियादारी तो समझ ही गया है कि इजाजत मांगने से इजाजत नहीं मिलती है, सीधे से पांच रुपल्ली मांग लो तो इजाजत साथ में फ़्री मिल जायेगी ::))
    - कोई नागवारी नहीं बन्धु! मैंने बस अपनी बात कही। ऐसी टिप्पणियाँ कहाँ जल्दी मिलती हैं! आप की साफगोई का कायल रहा हूँ बीड़ू:)

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  20. @ पंकज जी
    कहाँ थे आप जमाने के बाद आए हैं !

    देवी पूजा की परम्परा लोक परम्परा है जो कहीं वाममार्गियों से जुड़ती है। इसका आम सोच पर कोई खास प्रभाव नहीं दिखता। लेकिन अवतार परम्परा हमारे मनोमस्तिष्क पर छायी हुई है। राम और कृष्ण के प्रसंग जिस तरह ग्राम्य और नागर दोनों जीवनों को प्रभावित करते हैं, वह विचारणीय है।
    इस कारण ही यह प्रश्न मेरे मन में उठता रहता है कि सारे अवतार पुरुष ही क्यों हुए ?
    ब्रह्मा,विष्णु और महेश - सृष्टि सर्जक,पालक और संहारक तीनों पुरुष और सम्भवत: ईश्वर भी पुरुष !
    वेदों में भी मुआ 'आदिपुरुष' ही है, 'आदिनारी' नहीं।

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  21. ओह!
    यह नारीवाद न ठेले होते तो अद्भुत होती पोस्ट!

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  22. पोस्ट के साथ-साथ सवाल-जबाब रोचक हैं।

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  23. शुभकामनायें। बालक अपनी राह खुद चुन लेगा। बल्कि राह तो तब बनी बनाई होती है जब आतताइयों ने कोई और राह छोड़ी ही न हो...

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