मंगलवार, 13 सितंबर 2016

सभ्यता संकट में Occupation of public space

चेन्नई महानगर की साधारण लोकल ट्रेन में यात्रा करना भी एक अच्छा अनुभव होता है। शांत, अनुशासित और संवेदनशील यात्री, अपने अपने राम, अपने अपने काम।

आज एक विचित्र बात दिखी। तीन चार स्टेशनों पर किशोर वय के लड़कों के झुण्ड झुण्ड बिना टिकट यात्रा करते, हो हल्ला करते यात्रा करते दिखे। राह में कन्नड़ दुकानों पर अभूतपूर्व सुरक्षा दिखी थी, मन प्रसन्न हुआ था कि नदी जल विवाद पर कर्नाटक में इतना कुछ हो जाने पर भी तमिळनाडु सरकार नागरिक सुरक्षा और विश्वास के प्रति कृतसंकल्प है लेकिन स्टेशन पर ...??

उत्सुकता हुई कि आखिर ये किशोर कौन हैं, कहाँ से अचानक? थोड़ी देर में ही मुँह पर रुमाल बाँधे बोगी के हर द्वार पर दो एक युवकों को देख समझ में आ गया कि अरब श्रेष्ठवादी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का क़ुरबानी के अवसर पर प्रशिक्षण चल रहा है – सार्वजनिक स्थानों पर कब्जा करने की, पहचान स्थापित करने की रणनीति का, अंग्रेजी में कहें तो Occupation of public space. प्राय: हर नगर कस्बे के प्रसिद्ध क्षेत्रों में यही काम मिनारें और मजारें करती हैं। पता भी नहीं चलता और लैण्डस्केप बदल जाता है। कई लोगों को यह बात बहुत छोटी लग सकती है कि उससे क्या होता है?

मस्तिष्क का अनुकूलन होता है, अभ्यास होता है, सहानुभूति होती है, भय बैठता है, अधिकार बढ़ता है और स्वीकार्यता भी। जहाँ पहले कुछ नहीं था, वहाँ माना जाने लगता है, हर शुक्र खयाल कर सड़क खाली की जाने लगती है, ऊँट क़ुरबानी के इलाके बनाये जाने लगते हैं और नगर प्रशासन कुछ निर्णय लेने से पहले राय लेने लगता है। एक निहायत ही बर्बर जहालत वाली सभ्यता बैठ जाती है, मन में भी और हवा में भी – भय बन कर। चुपचाप वह बढ़ती रहती है और 1:2 का अनुपात होते ही यलगार होने लगते हैं – मेरे मौला बुला ले दर पे ‘इन्हें’, वरना कर दे इशारा ...।

संसार के लगभग समस्त लोकतांत्रिक उदार समाज में मोहमदी मजहब और साम्यवाद एक थैली के चट्टे बट्टे नजर आते हैं, जानते हैं क्यों? क्यों कि दोनों मूलत: एक हैं। यह कहें कि साम्यवाद ग़रीब के पसीने से भीगी कोट का आभास देता वह डिजाइनर चोगा होता है जिसके भीतर मोहमदी ढील, चिल्लर और पिस्सू पनपते और फलते फूलते हैं तो अत्युक्ति नहीं होगी। यह चोगा सुविधा के अनुसार कभी टँगा होता है तो कभी पहना हुआ लेकिन बू वही, बू के सयाने वही।

कुछ् वर्ष पहले चोगे पहनने वाली परवर्जनशील क़ौम ने एक आन्दोलन को जन्म दिया – Occupy Movement। उनका कहना था कि संसार पर 1% का कब्जा है और 99% वंचित हैं जो कि अपना स्थान ले कर रहेंगे। टोटके वगैरह ढूँढ़े गये, भारत में भी आन्दोलन हुये।

बात उहात्मक है लेकिन सही है। मैं कहता रहा हूँ कि हम सभी एक अदृश्य मैट्रिक्स द्वारा जिलाये जा रहे हैं, हाँके जा रहे हैं लेकिन इसके अनुभव से उपजी हताश मानसिकता का जैसा शोषण और दुरुपयोग मजहबियों और साम्यवादियों ने किया और कर रहे हैं, अपने आप में अद्भुत है जी, अद्भुत!

मजहब हो या साम्यवाद, सही दिखते को कैसे गले लगा कर अपने जैसा बना देना है या नेस्तनाबूत कर देना है, इनमें दोनों निष्णात हैं। वंचना और छलना से बचने की बातें करते करते कैसे कब किसी का जीवन साफ कर दें या कब किसी की जेब काट लें, पता ही न चले! प्रशिक्षण जो कच्चे समय से ही दिया जाता है।

जो शिकार वर्ग यानि इनसे इतर वर्ग है, वह आधुनिक दिखने की ललक में उन्हें space देता मानसिक रूप से इतना समाप्त हो चुका है कि अपनी देह तक पर नियंत्रण नहीं! उसके पास उन्हीं के दिये प्रतिरोधी शब्द भर हैं जिनकी आड़ ले वह अपने ही ध्वंस को प्रायोजित करता चल रहा है।

जो चेतावनी देने वाले हैं वे भी बस बकबक करने की भूमिका का निर्वाह करते हुये हलाल हो रहे हैं – कसाई आयेगा, खँस्सी को मार खा जायेगा, बच सको तो बच लो ... खचाक!
सभ्यता वास्तव में संकट में है!                  


1 टिप्पणी:

  1. ये एक सार्वभौमिक विरोधाभास है. पौराणिक उदाहरण दिया जाये तो कलयुग द्वारा परीक्षित से शरण मांगकर वहाँ पांव पसारने की बात है. मज़हब का उदाहरण दें तो हिंदू और इस्लाम के उदाहरण से देखा जा सकता है और यदि राजनीतिक विचारधारा का उदाहरण दिया जाय तो लोकतंत्र और कम्युनिज़्म सटीक उदाहरण हैं. और अगर राष्ट्रीयता की बात हो तो भारत और पाकिस्तान. पहला उदात्त और विस्तृत है, दूसरा सीमाबद्ध है. पहले में दूसरे को स्वीकारने, सहने, समाहित करने की इच्छाशक्ति भी है और दया भी. दूसरे पक्ष की नज़र में पहले की उपस्थिति अपने अस्तित्व के लिय खतरा है और इसलिये उस पर प्रहार जायज़ है. सभ्यता को यह समझना पडेगा कि पिशाच आदमखोर होते हैं. बर्बर समाज सभ्यता को अपने लिये खतरा मानकर उसके प्रति होस्टाइल रहता है.

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