शनिवार, 26 नवंबर 2016

कास्त्रो, मोदी, बदलता भारत और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान


आज फिदेल कास्त्रो की मृत्यु हो गयी, वही कास्त्रो जिनको उनकी दीर्घ आयु ने अपने मित्र सहयोगी ‘चे’ की तुलना में बौना बना कर रखा। कास्त्रो अपने पीछे एक ऐसा क्यूबा छोड़ कर गये जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवायें नि:शुल्क हैं, टॉयलेट पेपर की राशनिंग है और पुस्तकें विलासिता की वस्तुओं सी महँगी हैं। वामपंथी क्यूबा के निवासी कहते हैं – सरकार हमें वेतन देने का बहाना करती है और हम काम करने का।
 
कॉलेज में था तो बोलीविया की डायरी, कुछ संस्मरण आदि में चे-कास्त्रो द्वय के बारे में पढ़ा था और भक्ति एवं व्यक्ति पूजा क्या हो सकती हैं, जाना था। भारत में देखें तो केवल ‘भक्ति आन्दोलन’ ही ‘अपने नायकों के प्रति कम्युनिस्ट श्रद्धा’ के समांतर खड़ा हो सकता है। फिर भी दोनों इसलिये आदरणीय हैं ही कि उसे सफल कर दिखाया और जीवित रखा जिसे वे क्रांति कहते थे, वह भी अमेरिका जैसे शत्रु के सामने। उनकी क्रांति को मिटाने की अभिलाषा शत्रु में इतनी थी कि सम्भवत: आज भी क्यूबा के अप्रवासियों को अमेरिकी नागरिकता सबसे आसानी से मिल जाती है! 

असमय मृत्यु योद्धाओं को अमरता का चोला पहना जाती है जैसा कि यहाँ भगत सिंह और उधर ‘चे’ के साथ हुआ। दीर्घायु उन्हें अभिशप्त धूमिलता से अलंकृत करती है क्यों कि विरुद्ध रह कीर्ति पाना सरल होता है बनिस्बत इसके कि सत्ता के केन्द्र में रहते हुये कीर्ति पायी जाय। फिदेल कास्त्रो के साथ यही हुआ। 

फिदेल की राह बाहर से आक्रमण की थी और आज भारत में जो हो रहा है वह भीतर से शत्रु पर आक्रमण की है। क्रांति के समय फिदेल सत्ता के बाहर ‘विद्रोही’ थे और यहाँ मोदी सत्ताधीश प्रधान हैं। फिदेल को जनता ने नहीं, उन्हों ने जनता के लिये स्वयं को चुना था। मोदी को जनता ने चुना। फिदेल कास्त्रो का सत्ता में आने से पूर्व विद्रोही इतिहास था, जिसकी छाया से ‘सत्ताधीश कास्त्रो’ कभी उबर नहीं पाया। मोदी का ऐसा कोई इतिहास नहीं। मोदी की तुलना के लिये लोग भूतपूर्व सिंगापुरी प्रधान का नाम ले रहे हैं, सही ही ले रहे हैं। उन्हें मोदी और कास्त्रो की यह तुलना बचकानी लगेगी लेकिन जब क्रांतिकारी परिवर्तन को लक्ष्य के रूप में देखेंगे तो सम्भवत: समझ पायेंगे कि मोदी ने क्या कर दिया है! 

कम्युनिस्टों से मोदी को जो सीखना है, वह है प्रचार तंत्र का आक्रामक उपयोग। उसके लिये क्यूबा के किसी स्क्वायर पर जा कास्त्रो के गगनचुम्बी पोर्ट्रेट देखने की आवश्यकता नहीं, दिल्ली से कुछ दिनों पूर्व उट्ठे करोड़ो के राजकीय विज्ञापनों को याद करना भर है। यह देखना भर है कि कैसे राज्यसभा टीवी का प्रयोग अब भी वामपंथी अपने प्रचार के लिये कर रहे हैं और कैसे ‘मतदाताओं से उनकी जात पूछने वाला’ कांग्रेसी दलाल अब स्टूडियो में बैठ छोटे व्यापारियों को उनकी ही तिजोरी दिखा रहा है कि देखो! खाली हुई जा रही है! सोशल मीडिया पर मोदी भक्तों को उस बारीकी से सीखना है जिससे उस दलाल को आभा-वलय प्रदान किया जा रहा है। 

करना कुछ नहीं है, बस जिस तरह से वे नकारात्मक घटनाओं को उछाल रहे हैं वैसे ही मोदी टीम को सकारात्मक घटनाओं का इतना घनघोर प्रचार करना है कि दलालों की म्याऊँ सुनाई तो दे लेकिन समझ में आने से पहले ही तिरोहित हो जाये! और ऐसी घटनायें अपार हैं क्यों कि एक शांत क्रांति के स्वागत में जनता का मूड अभी भी उत्साही बना हुआ है, भारत बदल रहा है! 

आज एक छोटी सी प्रदर्शनी में गया तो छोटे व्यापारियों का उत्साह देख विस्मित रह गया। 120 से ले कर 500 रुपये तक के भुगतान कार्ड से स्वीकार किये गये, बिना किसी उज्र या अनमनेपन के। समझ भरी मुस्कान जैसे कह रही थी, हम तैयार हैं। दलाल भाँड़ को ऐसे लोग कभी नहीं मिलेंगे क्यों कि उन्हें जात और ‘बहुते वाली क्रांतिकारिता’ से कोई मतलब नहीं, बस इससे है कि सूरत बदलनी चाहिये! मोदी की यही शक्ति है जिसे वह उपेक्षा और तंत्र के निकम्मेपन से खोना तो नहीं ही चाहेंगे। 

एक वृद्ध के यहाँ से हम लोगों ने पर्स लिया। मैंने थोड़ी उत्सुकता दिखाई तो उन्हों ने बड़े प्यार से ‘पेपरलेस’ भुगतान यंत्र की प्रक्रिया समझाई। 

यह छोटे से कैलकुलेटर के बराबर का यंत्र है जिसमें कार्ड लग जाता है। देखो बेटे! स्क्रीन पर तुम्हारे नाम के साथ राशि भी आ गई है। तुम्हारे मोबाइल पर भी सन्देश आ गया होगा। इसमें पर्ची नहीं निकलती और प्रयोग बहुत आसान है। तीन सौ रुपये मासिक शुल्क पर यह उपलब्ध है। खाते से लिंक है, मोबाइल में ऐप इंस्टाल है, इंटरनेट है ही, बस ब्लूटूथ से जोड़ कर रखना है, भुगतान सीधे खाते में!

...फिदेल कास्त्रो के नाम क्यूबा में मार्ग नहीं हैं और भविष्य में यहाँ मोदी के नाम भी नहीं होंगे। नवोन्मेषी लोग 'मार्ग और मूर्ति' सरीखी बहुजनी कांग्रेसी गतिविधियों में अपनी ऊर्जा नहीं खपाते। हाँ, उन्हें प्रचार तंत्र तगड़ा रखना ही होता है और दण्ड का भी। कौटल्य भी तो यही कह गये हैं, नहीं?

बुधवार, 23 नवंबर 2016

नाक्षत्रिक नटराज

पूर्णिमान्त आधारित नामकरण में महीने का अंत पूर्णिमा से होता है, उत्तर के अधिकांश भाग में यह प्रचलित है। गई पूर्णिमा को जब कि चंद्र कृत्तिका नक्षत्र पर पहुंचे, कार्तिक मास समाप्त हो गया और मार्गशीर्ष (अगहन) प्रारम्भ हो गया जो कि अगली पूर्णिमा तक रहेगा। उस दिन चन्द्र मृगशिरा (Orion) नक्षत्र पर होंगे। इसी से महीना मार्गशीर्ष कहलाता है।

 इसके एक और नाम अगहन का सम्बन्ध उस समय से है जब महाविषुव (Spring equinox) के दिन सूर्य मृगशिरा नक्षत्र पर होते और नया साल प्रारम्भ होता अर्थात मृगशिरा साल का अगुवा था।

दक्षिण में अमान्त का चलन है अर्थात अमावस्या के दिन महीना समाप्त होता है और शुक्ल पक्ष एक से प्रारम्भ। पूर्णिमा महीने के बीच में पड़ती है। अत: यहां कार्तिक अभी भी चल रहा है जो अगली अमावस्या को समाप्त हो जाएगा। 

किसी समय परंपरा में मृगशिरा नक्षत्र प्रजापति का रूप था जिसका मस्तक लुब्धक नक्षत्र (Sirius) रूपी रुद्र ने काट दिया था। उस नाक्षत्रिक रूपक का संबंध महाविषुव की खिसकन से था।

दक्षिण भारत में मृगशिरा, आर्द्रा और रोहिणी नक्षत्रों के साथ और नीचे का क्षेत्र ले 'विराट नटराज' का रूपक मिलता है। रोहिणी (aldebaran) और अग्नि हुतभुज (Alpha स्टार) एवं [Hyades] का क्षेत्र वैदिक यज्ञीय अग्नि से संबन्धित था। उसका नटराज का प्रज्वलित खप्पर हो जाना! कल आकाश को घूरते मेरे रोंगटे खड़े हो गये। 

तो आज रात आप नटराज का दर्शन करेंगे न? दक्षिण पूर्वी आकाश साढ़े दस के पश्चात?

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

राक्षसी लङ्का - समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला: [सुंदरकाण्ड - 6]

सुंदरकाण्ड -5 से आगे:

लङ्का। वैश्विक आतंक और अत्याचार की नाभि लङ्का। महाकपि के सामने वह लङ्का थी जो विश्वकर्मा द्वारा निर्मित और राक्षसेन्द्र द्वारा पालित थी -  पालितां राक्षसेन्द्रेण निर्मितां विश्वकर्मणा। विकृत विद्या, आहार और विहार से उन्मत्त महाभोगी राक्षस समृद्ध लङ्का सामने थी जिसका पूरा तंत्र ही शोषण, अपहरण, बलात्कार, हत्या और रुधिर से समन्वित था।  
सागर उसकी सुरक्षा में था। त्रिकूट लम्ब पर्वत के शिखर पर स्थित अट्टालिकाओं में रहने वाला दुरात्मा व्यभिचारी रावण चहुँओर फैले स्कन्धावारों के माध्यम से अपनी आतंकी श्रेष्ठता का उद्घोष करता था जिसे सुदूर कैलास तक सुना जा सकता था।
उसके अपने वेदविद ब्रह्मराक्षस थे, अपने अभिचारी यजन सत्र थे और सुव्यवस्थित सुनियोजित प्रचारतंत्र भी:
षडङ्गवेदविदुषां क्रतुप्रवरयाजिनाम्
शुश्राव ब्रह्मघोषांश्च विरात्रे ब्रह्मरक्षसा

देव, विद्याधर, यक्ष, नाग, गन्धर्व आदि सब उससे काँपते थे, ग्रामीण और नागर मनुष्यों या वनवासी वानर भल्लूकों को तो वह गिनता ही नहीं था। जाने कितनी स्त्रियाँ अपहृत बलत्कृत कर लङ्का के वासनापङ्क में लायी गयीं और भुला दी गयीं। निर्बल जग ने लङ्का की रीति कह स्वीकार सा कर लिया, सबल की सामर्थ्य क्षम्य हो गयी।

ऐसे में एक और स्त्री, वह भी एक निर्वासित राजकुमार की स्वयं रावण द्वारा अपहृत मानवी पत्नी को ढूँढ़ने वह आये थे और सामने विराट लङ्का के उत्तुङ्ग भवनशिखर थे - अट्टालकशताकीर्णां ...गिरिमूर्ध्नि स्थितां लङ्कां

उत्तरी द्वार के निकट पहुँच हनुमान चिंतित हो उठे - द्वारमुत्तरमासाद्य चिन्तयामास वानरः। इस राक्षस नगरी में भीतर कोई सहायता नहीं मिलनी, वह तो आगे की बात है, प्रविष्ट कैसे हों? वह तो भयङ्कर शस्त्रास्त्र धारी घोर राक्षसों द्वारा रक्षित थी, जैसे विषधर सर्प अपनी गुहाओं की करते हैं - दंष्ट्रिभिर्बहुभिः शूरैः शूलपट्टिशपाणिभिः रक्षितां राक्षसैर्घोरैर्गुहामाशीविषैरपि
वह उस स्त्री की भाँति थी जिसकी जघनस्थली चहारदीवारी हो, विशाल जलराशि और गहन वनप्रांतर जिसके वस्त्र हों, शतघ्नी और शूल सरीखे अस्त्र जिसके केश हों और अट्टालिकायें कर्णफूल:
वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुनवाम्बराम्
शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकवतंसकाम्
 लम्पटों द्वारा प्रताड़ित दीन स्त्रियों को बन्दी बना कर रखने वाली लङ्का का रम्य रूप भी अभेद्य था!    

उसे तो युद्ध द्वारा भी जीता नहीं जा सकता था – नहि युद्धेन वै लङ्का शक्या। विषमां लङ्का दुर्गां, पहुँच कर भी राघव क्या कर लेंगे – किं करिष्यति राघव:?
राक्षसों पर साम, दान, भेद और युद्ध, इनमें से कोई भी नीति सफल नहीं होनी:
अवकाशो न सान्त्वस्य राक्षसेष्वभिगम्यते
न दानस्य न भेदस्य नैव युद्धस्य दृश्यते
मेरे अतिरिक्त केवल तीन वानरों, अङ्गद, नील और सुग्रीव की गति ही यहाँ तक हो सकती है।
घोर चिंता में महाकपि की विचारसरि बह चली, अच्छा, पहले पता तो लगा लूँ कि वैदेही जीवित हैं भी या नहीं – वैदेहीं यदि जीवति वा न वा?
नगरी में आँख बचा कर, कोई ऐसा रूप धारण कर जो दिखने पर भी अनदेखा रह जाये, लक्ष्यालक्ष्य रूप धारण कर ही प्रवेश करना चाहिये।

उन्हें दूत के कर्तव्य की सुध भी हो आई - मेरे कारण कार्य बिगड़ना नहीं चाहिये। विकल दूत द्वारा देशकाल के प्रतिकूल आचरण करने के कारण कई बार स्वामी के बने बनाये कार्य भी बिगड़ जाते हैं। अपने को पण्डित मानने वाले दूत भी कई बार सब चौपट कर देते हैं – घातयंतीह कार्याणि दूता: पण्डितमानिना:। कैसे करूँ कि मुझे विकलता न हो, समुद्र लङ्घन का उद्योग व्यर्थ न जाने पाये और कार्य भी न बिगड़े – न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत्, लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्? यहाँ छिपे बैठे रहने से भी कुछ नहीं होना, ऐसे ही रहा तो मारा जाऊँगा और स्वामी का कार्य भी विनाश को प्राप्त हो जायेगा।
मैं रात में अपने इसी रूप में ह्रस्व हो लङ्का में प्रवेश करूँगा - तदहं स्वेन रूपेण रजन्यां ह्रस्वतां गतः

प्रदोषकाल में हनुमान जी ने परकोटा फाँदा और नगरी में प्रविष्ट हो गये। भीतर जो लम्बशिखरे लम्बे लंबतोयदसन्निभे ...खमिवोत्पतितां लङ्का का रूप दिखा वह मन को हराने वाला अचिंत्य था, अद्भुत था; साथ ही उन लघुदेह को विदेह कन्या के दर्शन की उत्सुकता की पूर्ति की आस बँधी थी, इसलिये प्रसन्नता भी थी - विषण्णता और हर्ष का विचित्र समन्वय घटित हुआ था:
अचिन्त्यामद्भुताकारां दृष्ट्वा लङ्कां महाकपिः
आसीद्विषण्णो हृष्टश्च वैदेह्या दर्शनोत्सुकः

मन को थोड़ी ठाँव मिली तो मेधावी समीक्षा पुन: प्रवाहित हुई। इस बार कुछ आशा बलवती हुयी थी इसलिये सतर्क विवेचन से कपि ने अनुमान लगाया। मेरे अतिरिक्त वानरों में केवल कुमुद, मैन्द, द्विविद, सुषेण, अङ्गद, सुग्रीव, कुशपर्वा  और जाम्बवान ही इस पुरी के भीतर प्रविष्ट हो सकते हैं। तत्क्षण राघव और लक्ष्मण के विक्रम पराक्रम ध्यान में आये और कपि प्रसन्नचित्त हो गये:
समीक्ष्य तु महाबाहो राघवस्य पराक्रमम्
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत्प्रीतिमान्कपिः

लङ्का के रम्य रूप पर पुन: ध्यान गया – वह नगरी वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दरी युवती के समान थी। उसके वस्त्र रत्नमय थे। गोष्ठागार और भवन उसके आभूषण थे।  परकोटों पर लगे यंत्रों के गृह ही उसके स्तन थे और वह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न थी:
तां रत्नवसनोपेतां कोष्ठागारावतंसकाम्
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम्

प्रशंसा करते कपि आगे बढ़े ही थे कि रंग में भंग पड़ गया। लङ्का का विकृत स्त्री रूप सामने था। गर्जना करती हुई वह सामने आ गयी – रे वानर! तू कौन है, यहाँ किस उद्देश्य से आया है? तू इस रावण सैन्य रक्षित पुरी में प्रवेश नहीं कर सकता।
वीर हनुमान अपनी धुन में पूछ पड़े – हे दारुण स्त्री! जो पूछ रही है, वह तो बता दूँगा लेकिन पहले तू ये बता कि है कौन? तेरे नयन बड़े विरूप हैं। तू किस कारण मुझे इस तरह भर्त्सना पूर्वक डाँट रही है? किमर्थं चापि मां क्रोधान्निर्भतर्सयसि दारुणे!      

उत्तर मिला – मैं महात्मा रावण की आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाली सेविका हूँ और मैं इस नगरी की रक्षा करती हूँ। आज तू मेरे हाथों मारा जायेगा। तू मुझे ही लङ्का नगरी समझ, अतिक्रमण करोगे तो कठोर वाणी से सत्कार होगा ही।

मेधावी और सत्त्ववान वानरशिरोमणि ने कूटनिवेदन किया – मुझे इस अद्भुत नगरी को देखने का बड़ा कौतुहल है। इसके वन, उपवन, कानन और मुख्य भवन आदि को देखने के लिये ही मेरा आगमन हुआ है।
 इसे सुन कर लङ्का ने पुन: परुष वाणी में उनका तिरस्कार किया – दुर्बुद्धि वानराधम! मुझे परास्त किये बिना तू इस पुरी को नहीं देख सकता। मैं राक्षसेश्वर रावण की पालिता हूँ (कोई ऐरी गैरी नहीं!)।

हनुमान जी ने बिना धैर्य खोये और विनम्र हो कर निवेदन किया – भद्रे! इस पुरी को देख कर मैं जैसे आया हूँ, वैसे ही लौट जाऊँगा (मुझे जाने दें)। दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ते यथागतम्

इस पर अत्यंत क्रुद्ध हो राक्षसी ने भयङ्कर महानाद कर वानरश्रेष्ठ को बड़े जोर से एक तमाचा जड़ दिया। इस प्रकार पीटे जाने पर वीर मारुति ने उससे भी अधिक तीव्र महानाद किया।
तत: कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयंकरम्
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता
तत: स हरिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम्
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मज:

उन्हों ने बायें हाथ का एक मुक्का उसे जड़ दिया। उस प्रहार से व्याकुल हुई वह धरती पर गिर पड़ी। तमाचे के व्याज में मुक्का खाने से उसकी अहंकार विचलित बुद्धि स्थिर हो गयी। सतोगुणी वीर वज्राङ्ग द्वारा राक्षसी का पराभव हो गया।

 उसने गद्गद वाणी में निवेदन किया -  महाबाहो! प्रसन्न होइये, मुझे त्राण दीजिये। हे सौम्य! सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्र की मर्यादा में स्थिर रहते हैं (स्त्री अवध्य होती है, ध्यान रखिये)।
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम
समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला:
मुझे आप ने अपने विक्रम से परास्त कर दिया। जाइये जिस हेतु आये हैं वह सब पूरा कीजिये – विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि!
_________________

 (रामायण का यह प्रसंग पर्याप्त नाट्य सम्भावनायें लिये हुये है। विचित्रता तो है ही, हास्य और रससृजन के भी अवसर हैं। एक समय ऐसा आया होगा जब आख्यान गायन मंचित भी होने लगा होगा। हरिवंश में यादवों द्वारा रामायण प्रसंग के मंचन के अंत:साक्ष्य हैं।)     

बुधवार, 2 नवंबर 2016

चार गुण – धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं [सुन्दरकाण्ड-5]


मनुष्य प्रज्ञा प्रेरित सम सम्यक संतुलन के कारण मनुष्य होता है। ऊर्ध्वरेता प्रज्ञा के कारण मूल प्रवृत्तियों का संतुलन सत की पहचान है। सत का सजग चयन वरेण्य है। वह प्रकाशमय सविता है जिसकी प्रेरणा निरंतर ऊँचाइयों की ओर ले जाती है।   
क्षुधा, निद्रा, भय और मैथुन - ये चार प्राकृत हैं, पाशव हैं, मूल प्रवृत्तियाँ हैं, समस्त जंतुओं में होती हैं। इनके एकल या बहुल समुच्चय ही बस हों तो तमस की स्थिति है। इस स्थिति में पाशव वृत्ति ही काम करती है, सम् वाद अर्थात संवाद नहीं। किसी भी अभियान में यदि ऐसी बाधा आये तो बेझिझक कठोरता पूर्वक उसका संहार शमन ही मार्ग है। तमस से उलझना उसे बढ़ाना और बली बनाना होता है।
____________________

पहली दो विघ्न बाधाओं में सजग देव तत्त्व की प्रेरणा और हस्तक्षेप थे लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं था। हनुमान जी की गति को मूल प्रवृत्ति ‘क्षुधा’ से प्रेरित राक्षसी सिंहिका ने रोक लिया – बहुत दिनों पश्चात मोटा आहार मिला है, इसे खा लूँ तो आज पेट भर जायेगा अद्य दीर्घ कालस्य भविष्याम्यहमाशिता
उसके द्वारा पकड़े जाने के कारण हनुमान जी का पराक्रम पङ्गु हो गया जैसे सागर में प्रतिलोम वायु के कारण विशाल जलयान की गति अवरुद्ध हो जाती है – सहसा पङ्गुकृतपराक्रम:, प्रतिलोमेन वातेन महानौरिवे सागरे!
सब ओर देखने पर समुद्र के जल के ऊपर उठा विशालकाय प्राणी दिखा और उन्हें स्मृति हो आयी कि सुग्रीव ने इसी महापराक्रमी छायाग्राही जीव के बारे में चेताया था, इसमें संशय नहीं कि वही है – छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशय:। पानी में थोड़े गहरे रहने वाले कुछ हिंसक जीव तैरते जीवों की छाया से ही आहार की उपस्थिति का अनुमान कर आक्रमण करते हैं, छायाग्राही से उसी ओर संकेत है।
उनकी गति अवरुद्ध कर सिंहिका मेघ घटा के समान गर्जना करती हुई ‘दौड़ी’ – घनराजीव गर्जन्ती वानरं समभिद्रवत्।
तमस विघ्न आक्रमण पर था। हनुमान जी पहचान चुके थे, कोई दुविधा नहीं, कोई झिझक नहीं और न पहले की तरह संवाद करने की आवश्यकता भी थी, कोई लाभ नहीं होता। कपि ने उसके मर्मस्थलों को चिह्नित किया कि इन पर वार करने से इसका नाश हो जायेगा, कायमात्रं च मेधावी मर्माणि च महाकपि - नीति चयनित आक्रमण।  
वे उसके मुँह में समा गये जैसे कि पूर्णिमा का चन्द्र राहु का ग्रास बन गया हो – ग्रस्यमानं यथा चन्द्रं पूर्णं पर्वणि राहुणा!
भीतर उसके मर्मस्थलों को अपने तीखे नखों से विदीर्ण कर दिया, राक्षसी मृत हो गिर पड़ी – पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम्
आकाशचारी प्राणियों ने कपि की सराहना की (न देवता, न विद्याधर, न गन्धर्व, केवल प्राणी)। इस विजय पर उन प्राणियों ने हनुमान जी से यह सूत्र कहा:
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति
हे वानरेन्द्र! जिसमें तुम्हारे समान धैर्य, सूझ बूझ वाली सूक्ष्म दृष्टि, बुद्धि और दक्षता - ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।
(सुकवि मर्मस्थलों को पहचानता और उदात्त मानवीयता की प्रतिष्ठा करता चलता है, यहाँ वही किया गया है)।

हनुमान जी को आगे विविध वृक्षों से विभूषित द्वीप दिखा, मलय पर्वत दिखा और उसके उपवन भी – विविधद्रुमविभूषितम्, द्वीपं ..मलयोपवनानि च
सागर, उसके तटीय जलप्राय क्षेत्र, तटीय वृक्ष और सागरपत्नी समान सरिताओं के मुहाने भी दिखे:
सागरं सागरानूपान्सागरानूपजान्द्रुमान्
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयन्
लङ्का निकट आ गयी, कहीं मेरी इस गति को देख राक्षसों के मन में कौतुहल न उत्पन्न हो जाय, ऐसा विचार कर महाकपि देह को ढील दे पुन: वैसे ही प्रकृतिस्थ हो गये जैसे मोहरहित हुआ व्यक्ति अपने मूल स्वभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो – वीतमोह इवात्मवान्, जैसे तीन पग में समूचे लोकों को नापने के पश्चात बलि की वीरता का हरण करने वाले हरि ने स्वयं को समेट लिया था – त्रीन् क्रमानिव विक्रम्य बलिवीर्यहरो हरि:। हरि का अर्थ वानर भी होता है और विष्णु भी। कपि ने सागर पार कर लिया था। 

...अंतिम तमस परीक्षा के साथ ही त्रिगुण परीक्षा को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर महाबली हनुमान जी ने त्रिकूट पर्वत के शिखर पर स्थित लङ्का को सावधान हो देखा - त्रिकूटशिखरे लङ्कां स्थितां स्वस्थो ददर्श ह

अब तक तो केवल परीक्षायें थीं, वास्तविक चुनौतियाँ तो अब आनी थीं। उनका आत्मविश्वास हिलोरें ले रहा था:
शतान्यहं योजनानां क्रमेयं सुबहून्यपि
किं पुनः सागरस्यान्तं संख्यातं शतयोजनम्