शुक्रवार, 2 जून 2017

देवानां प्रियं

शौ.अथर्ववेद (2.34.2) में पशुपति देवता के लिये सम्बोधन में एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है:

उपाकृतं शशमानं यदस्थात्प्रियं देवानामप्येतु पाथ:। 

अन्वय करते हैं:
यत् शशमानं उपाकृतं देवानां प्रियं पाथ: अस्थात् तत् अपि एतु। 


संस्कारहीन मनुष्य क्या है? एक प्रकार का पशु। पशुपति कौन है? ईश्वर। पशु से मनुष्य तक की यात्रा में योगमार्ग का संकेत इस मंत्र में माना गया है। योगी का आहार कैसा हो?
शशमानं का शश शशि है और शशमानं, शशि चन्द्र द्वारा पोषित सोम आदि वनस्पतियाँ। सोम और शशि तो समानार्थी भी हैं न!
पाथ: द्रव अर्थ में प्रयुक्त है, बरबस ही पथ्य शब्द पर ध्यान चला जाता है। यहाँ पुष्टिकारी रस के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वनस्पति का आहार 'रस' कैसे होगा? उपाकृतं - संस्कार द्वारा। जहाँ भोजन बनता है, वहाँ वनस्पतियों को संस्कारित कर रसयुक्त आहार बनाया जाता है, इसीलिये वह 'रसोई' है। 
ऐसा आहार देवानां प्रियं - देवों को प्रिय होता है। देव कौन हैं? आप की इन्द्रियाँ हैं (देवराज इन्द्र पर ध्यान दें)। तो आहार ऐसा हो जो इन्द्रियों को प्रिय हो अर्थात उन्हें पुष्टि देता हो।
तत् अपि एतु - ऐसा आहार हमें प्राप्त हो।
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मैं आप को अत्यल्प झाँकी भर दिखा देता हूँ। रुचि हो तो prachodayat.in पर मरुत मित्र के लेख पढ़िये। आर्ष जीवन, वैकल्पिक स्वस्थ जीवन कैसा होना चाहिये और कैसे इस युग में भी सम्भव है? पता चलेगा।
मरुत = मर्+उत। जो मरने के लिये उद्यत हो। ऐसा क्या? हाँ, क्षात्र धर्म का जीवन ऐसा ही। केवल सीमा पर लड़ना ही नहीं, देह और परिवेश पर पूर्ण नियंत्रण, रक्षण और जीवन के लिये मरना। योगमार्ग क्षात्रमार्ग है।

1 टिप्पणी:

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